बॉलीवुड में आने से पहले क्रिकेट खेलता था ये विलन, कौन जानता था बन जाएगा ‘सांभा’?

0

आपको फिल्म शोले का वो डायलॉग तो याद होगा जब गब्बर सांभा से पूछता है कि अरे ओ सांभा कितना इनाम रखे हैं सरकरा हम पर, तो टीले पर बैठा हुआ सांभा बोलता है कि पूरे पचास हजार . इस संवाद में न कोई खास बात थी न हीं कोई वजन लेकिन फिल्म के इस यादगार डायलॉग ने पूरी फिल्म में जान दे डाली थी. उस फिल्म में सांभा ही एक ऐसा शख्स था जो अपने सरदार की ही बात मानता था. लेकिन फिर भी दर्शक उसे बेहद पंसद करते थे. दुबला-पतला जिस्म, चेहरे पर दाढ़ी और बोलती हुई आंखे….वो शख्स जब भी पर्दे पर आया तो दर्शकों ने उठकर तालियां बजाई उस शख्स का नाम था मोहन माखिजानी यानि मैकमोहन.जिन्हे फिल्म शोले से एक ऐसी पहचान मिली कि उन्होने वापस मुड़कर कभी नहीं देखा. आज उन्ही का 80वां जन्मदिन है. आज वे हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनका दमदार अभिनय आज भी जिंदा हैं…

क्रिकेटर से खलनायक बनने तक का सफर

मैकमोहन का फिल्मों में आना महज़ एक इत्तेफ़ाक़ था. वे एक बेहतरीन क्रिकेटर थे और मुम्बई आए भी इसीलिए थे कि क्रिकेट को करियर बना सकें. मूल रूप से कराची के रहने वाले मैकमोहन के पिता ब्रिटिश फ़ौज में कर्नल थे. मैकमोहन का जन्म 24 अप्रैल 1938 को कराची में हुआ था. साल 1940 में उनके पिता परिवार को साथ लेकर ट्रांसफर पर लखनऊ आ गए. मैकमोहन की पढ़ाई-लिखाई लखनऊ और मसूरी में हुई थी.

क्रिकेट के लिये गए थे मुंबई

मैकमोहन स्कूल और यूनिवर्सिटी की क्रिकेट टीम के कैप्टन थे. फिर उत्तरप्रदेश की टीम से खेलने लगा. अचानक मां बीमार हुईं तो पिताजी ने इलाज की बेहतर सुविधाओं को देखते हुए अपना ट्रांसफ़र मुम्बई करा लिया. क्रिकेट में बेहतर भविष्य की तलाश में साल 1952 में मुम्बई चले आए. यहां मैकमोहन ने कॉलेज में दाखिला लिया और साथ ही पूरे जोश से क्रिकेट खेलने लगे. उन्हीं दिनों एक दोस्त के कहने पर मैकमोहन ने ‘हिंदी परिषद’ नाम की संस्था के एक नाटक में शौक़िया तौर पर काम किया. उस नाटक में शौक़त आज़मी मैकमोहन की मां की भूमिका में थीं. वो नाटक बेहद कामयाब रहा.

नाटक से मिला था एक्टिंग स्कूल में दाखिला

कुछ दिनों बाद शौक़त आज़मी ने उन्हें ‘इप्टा’ के नाटक ‘इलैक्शन का टिकट’ में काम करने के लिए बुलाया. चूंकि उनका पूरा ध्यान क्रिकेट की तरफ़ था, इसलिए पहले तो उन्होने मना कर दिया, लेकिन फिर तमाम दबावों के आगे झुककर उन्हे उस नाटक में काम करना ही पड़ा. उस नाटक को भी दर्शकों ने काफ़ी पसन्द किया.‘इप्टा’ के नाटक में मैकमोहन का काम देखकर ‘फ़िल्मालय एक्टिंग स्कूल’ के कोच पी.डी.शेनॉय ने उन्हें अपने स्कूल में दाख़िले का निमंत्रण दिया, जिसे मैकमोहन ने स्वीकार कर लिया. 3 साल के एक्टिंग कोर्स के बाद उन्हें जो पहली फ़िल्म मिली, वो थी चेतन आनंद की ‘हक़ीक़त’ जो साल 1964 में बनी थी.

ऐसे पड़ा मैकमोहन नाम

फ़िल्म ‘हक़ीक़त’ के क्रेडिट्स में ग़लती से उनका नाम मोहन माखिजानी की जगह बृजमोहन लिख दिया गया था. उधर उनके दोस्त उन्हें ‘माखिजानी’ का शॉर्टकट ‘मैकी’ कहकर बुलाते थे. इसी ‘मैकी’ का इस्तेमाल करते हुए फ़िल्मफ़ेयर के तत्कालीन सम्पादक एल.पी.राव ने फ़िल्म ‘हक़ीक़त’ की समीक्षा में उन्हें नया नाम दिया था, ‘मैकमोहन’. आगे चलकर यही नाम उनकी पहचान बना.

फ़िल्म ‘हक़ीक़त’ में मैकमोहन के काम को काफ़ी पसन्द किया गया. साल 1964 में ही ‘फिल्मालय’ की फ़िल्म ‘आओ प्यार करें’ के मशहूर गीत ‘ये झुकी झुकी झुकी निगाहें तेरी’ में वो डांस करते नज़र आए.

चिख-चिल्लाहट से मिली थी फिल्म ‘आया सावन झूम के’

लेकिन एक ऐसा दौर आया जब उन्हे काम नहीं मिल रहा था. और उनका क्रिकेट भी उनसे छूट चुका था. तब उन्होने फ़िल्म ‘आख़िरी ख़त’ में वो चेतन आनन्द के साथ बतौर असिस्टेंट डायरेक्टर काम करने लगे. मैकमोहन ने इंटरव्यू में बताया था कि वे रोज़ाना अपने घर की छत पर जाकर अलग अलग चरित्रों की प्रैक्टिस किया करता था, ज़ोर ज़ोर से डायलॉग बोलता था और चीखता-चिल्लाता था. मेरी इस चीख-चिल्लाहट से पड़ोस में रहने वाले निर्देशक रघुनाथ झालानी इतने तंग आ गए थे कि फ़िल्म ‘आया सावन झूम के’ में पागल की भूमिका में उन्हें मैं ही याद आया.

मैकमोहन रवीना टण्डन के सगे मामा

फ़िल्म ‘आया सावन झूम के” की उस भूमिका के लिए दाढ़ी बढ़ाने की बात आई तो उनके फ़ौजी पिता ने इजाज़त देने से साफ़ इंकार कर दिया. बहुत मिन्नतों के बाद कहीं जाकर वो माने. इसके बाद मैकमोहन को फ़िल्म ‘अनहोनी’ मिली जिसमें वो खलनायक थे. इस फ़िल्म के निर्देशक मैकमोहन के सगे बहनोई और अभिनेत्री रवीना टण्डन के पिता रवि टण्डन थे. (मैकमोहन रवीना टण्डन के सगे मामा थे.) ये दोनों फ़िल्में कामयाब रहीं.

46 साल के करियर में 200फिल्में की

मैकमोहन ने ‘शोले’ के अलावा ‘हंसते ज़ख़्म’, ‘ज़ंजीर’, ‘रफ़ूचक्कर’, ‘हेराफेरी’, ‘ख़ूनपसीना’, ‘शान’, ‘काला पत्थर’, ‘कर्ज़’, ‘डॉन’, ‘सवाल’, ‘सत्ते पे सत्ता’ जैसी क़रीब 200 फ़िल्मों में अभिनय किया. इनमें उनकी भांजी रवीना टण्डन’ द्वारा निर्मित फ़िल्म ‘स्टम्प्ड’ भी शामिल है. साल 2009 में प्रदर्शित हुई फ़िल्म ‘लक बाय चांस’ मैकमोहन की आख़िरी फ़िल्म थी. मैकमोहन ने फिल्मों से टीवी की ओर भी रुख किया. वे ‘संसार’, ‘औरत तेरी यही कहानी’, ‘बेताल’, ‘कृष्ण अर्जुन’, ‘खोज’, ‘कमाण्डर’ और ‘श्श्श्श…कोई है’ जैसे कई धारावाहिकों में नज़र आए.

फेफड़ों में ट्यूमर से जूझ रहे थे मैकमोहन

नवंबर 2010 में जब मैक मोहन ‘अतिथि तुम कब जाओगे’ की शूटिंग कर रहे थे तो उनकी तबियत खराब हुई. तभी उन्हें मुंबई के कोकिलाबेन धीरूभाई अंबानी अस्पताल में दाखिल किया गया. जहां डॉक्टरों ने बताया कि उनके फेफड़ों में ट्यूमर है. इसके बाद उनका लंबा इलाज चला लेकिन उनकी तबियत लगातार बिगड़ती चली गई. एक साल बाद ही 10 मई 2010 को मैक मोहन हमेशा के लिए दुनिया को अलविदा कह गए. वह अपने पीछे पत्नी मिनी, दो बेटियां मंजरी व विनती और एक बेटा विक्रांत छोड़ गए.

उनकी मौत पर ‘बिग बी’ भी रो पड़े थे

मैकमोहन की मौत पर अमिताभ बच्चन ने अपने ब्लॉग पर दुख जताते हुए लिखा, यह बताते हुए दुख हो रहा है कि मैक मोहन इस दुनिया में नहीं रहे. वह कोमल हृदय वाली आत्मा थे. वह सभी का बहुत ध्यान रखने वाले व्यक्ति थे. अमिताभ ने कहा कि उन्हें कई वजहों से याद किया जाएगा लेकिन शायद उनका संदर्भ हमेशा ‘शोले’ के ‘सांभा’ के रूप में दिया जाएगा.

Leave A Reply

Your email address will not be published.