जज्बे को सलाम, कैसे एक काम वाली बाई से बनी मशहूर लेखिका की दर्दभरी कहानी

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सफलता तो हर किसी को कभी न कभी मिल ही जाती है. लेकिन उसकी अहमियत उन्हे ज्यादा होती है जिन्होने अंगारो पर चलते हुए अपना जीवन बिताया हो. जिनके पास पर्याप्त संसाधन न हो जो पैसे के अभाव में सफलता को प्राप्त करें. उनके लिेये सक्सेस का महत्व ही कुछ और है. आज हम एक ऐसी ही कहानी आपको बताने जा रहे हैं जिसमें दूसरों के घरों में झाड़ू-पोंछा लगाने वाली एक नौकरानी का लेखक बन जाना किसी फिल्म की तरह कपोल-कल्पित कहानी की तरह ही लगता है. जीं हां, ये उस महिला की कहानी है जिनके अक्षरों में लिखे शब्दों में अपनापन नजर आता है. इसलिये आज वे एक लेखिका हैं. आइए जानते हैं बेबी हालदार की कहानी…

12साल की उम्र में हो गया शादी

29साल पहले जम्मू कश्मीर में बेबी हालदार का जन्म हुआ था. पिता सेना में थे लेकिन वे घर बहुत कम ही आते थे. सेना की नौकरी से रिटायर हो गये तो उन्होने घर छोड़ दिया. उनसे बाद मां का मन भी दुखी रहने लगा और गोद में उनके छोटे भाई को लेकर यह कहकर चली गयी कि बाजार जा रही हूं. लेकिन इसके बाद वे कभी वापस नहीं आयी. बचपन का दालान पार करने से पहले वह मां के प्यार से वंचित हो गयी थी.

वहीं उनके पिता ने लगातार तीन शादियां की. इस दौरान बेबी कभी नई मां के साथ रहती तो कभी बड़ी बहन के ससुराल में और कभी अपनी बुआ के घर. मां की कमी ने मन में पहाड़ जैसा दुख भर दिया था. पिता की लापरवाही के कारण पढ़ाई लिखाई से तो दूर-दूर जैसा कोई रिश्ता ही नहीं बचा था.

वैवाहिक बलात्कार का शिकार

घर के हालात दिन पर दिन बद से बदतर होते जा रहे थे. ऐसे में बेबी ने छठी में ही पढ़ाई छोड़ दी थी.उनका विवाह 12साल की उम्र में ही कर दिया गया था. पति उनसे 14साल बड़ा था. शादी के 3-4दिन बाद उनके पति ने उनका साथ वैहसीपन शुरू कर दिया. वह उसे अक्सर मारता-पीटता रहता था. 14की उम्र में ही बेबी 3बच्चों की मां थी. एक दिन बेबी ने अपने पति का घर छोड़ दिया और वे अपने बच्चों को लेकर गुड़गांव चली गयी. तीन साल पहले उन्हे गुड़गांव के एक प्रोफेसर, प्रबोध जी, के घर काम मिला. उन्हें पढ़ने का शौक था इसीलिए घर में बहुत सी किताबें थी.

 

प्रोफेसर ने बना दिया लेखिका

बेबी अक्सर प्रोफेसर की किताबों की सफाई करते हुए किताबों के पन्ने पलटती रहती थी. एक दिन प्रबोध जी उनके लिये कॉपी-पेंसिल लेकर आए और बोले कुछ भी अपने बारे में लिखों. बेबी हालदार बताती हैं कि मैं अपने बारे में लिखने लगी.मेरा इतना मन लगने लगा कि मैं लिखती गयी. रसोई घर में मैं सब्जी काटना छोड़, लिखने बैठ जाती. खाना बनाते समय भी कॉपी बगल में रहती. बच्चों को सुलाने के बाद भी मैं देर रात तक लिखती रहती. मेरे मन की बातें शब्दों का रूप लेने लगीं. लिखने से मेरा दिल हल्का हुआ. प्रबोध जी मेरी कॉपियां लगातार पढ़ते रहे. आखिर मैंने अपनी पूरी कहानी लिख डाली. प्रबोध जी ने मेरी कहानी का बांग्ला से हिंदी में अनुवाद किया. और उन्होंने साल 2001 में उसे छपा के ‘आलो आंधारी ‘ किताब का रूप दिया.

पहली किताब ने ही मचा दिया तहलका

खासकर महिलाओं ने एक दूसरे से छीन छीनकर पढ़ी और गले मिल कर रोईं. 2002 में कोलकाता के एक प्रकाशक ने इसका हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया तो न्यूजपेपर के अलावा इलेक्ट्रानिक मीडिया में भी शोर मच गया. यह किताब बेस्ट सेलर साबित हुई.

अभी तक बेबी हालदार की पुस्तक 21भाषाओं में प्रकाशित हो चुकी है. साल 2006 में किताब का अंग्रेजी अनुवाद “A Life Less Ordinary” के शीर्षक से प्रकाशित हुआ तो न्यूयॉर्क टाइम्स हील्डर के इस आत्मकथा को “Angela’s Ashes” का भारतीय संस्करण करार दिया. उल्लेखनीय है कि 1996 में अमेरिकी अदीब फ्रैंक मिकोरट की यादाशतें Angela’s Ashes ने तहलका मचा दिया था. 2008 में हील्डर की आत्मकथा का अनुवाद जर्मन भाषा में हुआ.

आज भी प्रोफेसर के घर में मासी बनकर रहती हैं बेबी

अभी तक बेबी की तीन किताबें सामने आ चुकी हैं, उसका बड़ा बेटा 20 साल का हो चुका है और पढ़ रहा है. किताबों से मिलने वाली विश्वसनीयता की बदौलत उसने अपना घर बना लिया है लेकिन वह अपने मोहसिन प्रबोध कुमार के घर में मासी बनकर ही रहना चाहती है.

पहली ही किताब से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पॉपुलेरिटी मिलने के बाद बेबी हालदार ने एक भारतीय टीवी इंटरव्यू में कहा, मैं आज भी अपने आप को मासी समझती हूँ. में प्रबोध कुमार का घर और अपने हाथों से झाड़ू कभी नहीं छोडूंगी लेकिन अब मैं लिखती रहूंगी इन्हीं के बदौलत तो मैं ने खुद को पहुंचाना है. मेरे पिता कहते हैं कि मैंने उनका नाम ऊंचा कर दिया. आलो आंधारि छपने के बाद से जैसे जिन्दगी में रौशनी आ गई है. अब मैं रोज लिखती हूँ. लिखे बिना अब रहा भी नहीं जाता. अपनी बात को मैं शब्दों में लिख सकी इस बात की मुझे खुशी है.”

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