एक चुहिया ने बदला स्वामी दयानन्द सरस्वती का जीवन, कैसे बने मूर्ति पूजा विरोधी ?

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Biography of Dayanand Saraswati in Hindi –

स्कूल के दिनों में हम सभी ने स्वामी दयानंद सरस्वती (Swami Dayanand Saraswati) के बारे में पढ़ा है. हमारे स्कूल की पाठ्य-पुस्तकों में उनके बारे में बहुत कुछ लिखा होता है. यदि आपको यभी भी याद होगा तो आपको मालुम होगा कि गुजरात के मोरवी रियासत के टंकारा गांव में उनका जन्म 12 फरवरी साल 1824 में हुआ था. वह आर्य समाज प्रमुख संस्थापक एवं सुधारवादी व्यक्ति थे.

मूल नक्षत्र में जन्म लेने के कारण स्वामी दयानंद सरस्वती का नाम मूलशंकर (Dayanand Saraswati aka Mulshankar) रखा गया था. बचपन से ही मूलशंकर की बुद्धि काफी तेज थी. महज 14 वर्ष की अल्प आयु में ही उन्हें यजुर्वेद, रुद्री के साथ-साथ अन्य वेदों के कुछ अंश याद हो गए थे.

स्वामी दयानंद के पिता का नाम अम्बाशंकर था. वह बाल्यकाल में शंकर के बहुत बड़े भक्त हुआ करते थे. अपने पिता के कहने पर मूलशंकर ने भी शिवरात्रि का व्रत एक बार रखा था. लेकिन एक बार उन्होंने देखा कि एक छोटी सी चुहिया शिवलिंग पर चढ़कर नैवेद्य खा रही है, तो उन्हें काफी धक्का लगा, और आश्चर्य भी हुआ.

यतः देखते हुए उनका मूर्तिपूजा से विश्वास उठ गया. अपने पुत्र के विचार में इस तरह का परिवर्तन देखकर पिता ने उनके विवाह की तैयारी कर ली. लेकिन जेसे ही मूलशंकर को इस बात की जानकारी हुई तो वहघर से भाग गए. इसके बाद उन्होंने अपना सिर मुंडा कर गेरुए वस्त्र धारण करते हुए भारतोद्धार का व्रत मन में लिए घर से निकल गए.

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दयानंद सरस्वती की बायोग्राफी (Biography of Dayanand Saraswati) :

दयानंद सरस्वती के जीवन और धार्मिक महत्त्व की तीन घटनाएं :

1. 14 वर्ष की आयु में मूर्तिपूजा के प्रति उनका विद्रोह.

2. अपनी बहन की मृत्यु के बाद वह अत्यन्त दु:खी हो गए थे. तब उन्होंने संसार त्याग करने एवं मुक्ति प्राप्त करने का निश्चय किया.

3. 21 वर्ष की उम्र में विवाह की बात जानकर घर से भागना. घर छोड़ने के बाद 18 वर्ष तक संन्यासी का जीवन जीना. सन्यासी के रूप में उन्होंने इन दिनों भ्रमण करते हुए कई कतिपय आचार्यों से अपने जीवन की शिक्षा को ग्रहण किया.

कई आचार्यों से शिक्षा प्राप्त करने के बाद वह प्रथमत: वेदान्त के प्रभाव में ब्रह्म एवं आत्मा की एकता को पूर्ण रूप से स्वीकार किया. जिस कारन यह अद्वैत मत में दीक्षित हुए और शुद्ध चैतन्य के नाम से जाने जाने लगे. बाद में सन्न्यासियों की चोथी श्रेणी में पूर्ण दीक्षित होते हुए दयानंद सरस्वती के रूप में प्रचलित हुए. जिसके बाद इन्होने योग को ग्रहण करते हुए वेदान्त के सिद्धान्तों को छोड़ दिया.

स्वामी विरजानन्द के शिष्य थे दयानंद सरस्वती :

सही ज्ञान की तलाश में स्वामी दयानंद सरस्वती मथुरा में प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द जी के पास गए. जहा दयानंद ने शिक्षा ग्रहण की.

प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द, बहुत बड़े वैदिक साहित्य के विद्वान् थे. उन्होंने स्वामी दयानंद सरस्वती वेद का पूरा ज्ञान दिया और यह कह कर छुट्टी दे दी की मैं चाहता हूँ कि तुम इस संसार में जाओं और सभी मनुष्यों में ज्ञान की ज्योति फैलाओ.

हरिद्वार में बीता दयानंद का जीवन :

हरिद्वार में जाकर स्वामी दयानंद सरस्वती ने पाखण्डखण्डिनी पताका को फहराते हुए मूर्ति पूजा का जमकर विरोध किया. उनका एसा मानना था की सिर मुंडाने, गंगा नहाने एवं शरीर पर भभूत लगाने से यदि स्वर्ग मिलता, स्वर्ग के पहले अधिकारी मछली, भेड़ और गधा होते.

जो व्यक्ति जीवित बुजुर्गों का अपमान करते थे और मृत्यु प्रश्चात उनका श्राद्ध करते थे वह उन्हें निरा ढोंग मानते थे. छुआ छूत का उन्होंने ज़ोरदार विरोध किया. एनी धर्मो के लोगो के लिए उन्होंने हिन्दू धर्म के द्वार खोले. महिलाओं की समाज में स्थिति को सुधारने के कई प्रयत्न किए.

1863 से 1875 तक उन्होंने अपने मत के प्रचार के लिए देश का भ्रमण किया. मुम्बई में 1875 में आर्यसमाज की स्थापना को देखते हुए देशभर में इसकी कई शाखाएँ खुल गईं है. आर्यसमाज अपौरुषेय और वेदों को ही प्रमाण मानता है.

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हिन्दी में ग्रन्थ रचना :

आर्यसमाज की स्थापना करने के साथ स्वामी जी ने हिन्दी में ग्रन्थ रचना का शुभारम्भ किया आरम्भ किया. इससे पहले उन्होंने संस्कृत में लिखे गए ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद किया

आर्य समाज की स्थापना (Founding of Arya Samaj) :

अपने विचारों का प्रचार करने के लिए 1863 से 1875 ई. तक स्वामी जी देश का भ्रमण किया. और वेदों के प्रचार का जिम्मा उठाय. जिसे पूरा करने के लिए लगभग 7 या 10 अप्रैल 1875 ई. को आर्य समाज संस्था की स्थापना कई एक नई पहल की. देखते ही देखते इसकी शाखाएं देश-भर में अत्यधिक फैल गई.

स्वामी दयानंद द्वारा लिखी गयी कुछ महत्त्वपूर्ण रचनाएं :

पाखण्ड खण्डन, सत्यार्थप्रकाश,वेद भाष्य भूमिका,अद्वैतमत का खण्डन, ऋग्वेद भाष्य, पंचमहायज्ञ विधि, वल्लभाचार्य मत का खण्डन आदि.

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