एक साधारण सरकारी शिक्षक से लेज़र किंग बनने का सफर…

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हम बात कर रहे है एक ऐसी शख्सियत की जिन्होंने परिस्थितियों से समझौता किये बगैर अपनी क्षमता पर विश्वास कर अपने सपने को साकार करने के लिए अनेकों बाधाओं से संघर्ष कर स्वाभिमान के साथ विजय प्राप्त की और सम्पूर्ण विश्व मे भारत का नाम गौरवान्वित किया।

सिरोही के मध्यम वर्गीय परिवार में 9 अप्रैल 1945 को जन्मे डॉ सुरेश टी. शाह बचपन से ही विज्ञान में काफी रुचि रखते थे। पिताजी के साथ दुकान पर भी बैठते थे जिससे व्यवसाय की बुनियादी समझ विकसित हो गई। इनके पिताजी त्रिलोक शाह कहते थे कि धंधा अपने सपने को पूरा करने के लिये होता है और नौकरी दूसरों के सपनों को पूरा करने के लिए।

यह बात कही ना कही इनके मस्तिष्क में बैठ गयी। घर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नही होने के बाद भी इन्होंने एम एस सी फिजिक्स की पढ़ाई अजमेर से 1968 में की और जल्द ही आर पी एस सी की परीक्षा पास कर 2nd ग्रैड शिक्षक के रूप में चयनित हो गए। लेकिन रिसर्च में विशेष रुचि होने के कारण 1975 में सरकारी नौकरी छोड़ कर पूना यूनिवर्सिटी से लेजर विषय में पी एच डी करने के लिए चार बच्चों के परिवार सहित पूना आ गए। इस दौरान यू जी सी द्वारा 1979 में पुणे यूनिवर्सिटी में इन्हें लेक्चरर अप्पोइन्ट किया गया। इस दौरान इन्होंने पोस्ट ग्रेजुएट स्टूडेंट्स को पढ़ाया और एक वर्ष में 9 सफल रिसर्च प्रोजेक्ट्स करवाये और पुणे रीजन के स्किल डेवलपमेंट के कार्य को पूरा कर विद्यार्थियों और व्याख्याताओं में लोकप्रियता हासिल की। साथ ही भारत मे बिना किसी फंडिंग के पहला हीलियम नियोन लेजर डेवलप कर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया।

इनकी पी एच डी थीसिस देखकर फ्रांस के प्रोफेसर ने कहा आज तक हमने इतना उत्कृष्ट और विशाल कार्य करते हुए किसी को नही देखा। इस व्यक्ति के वाइवा की जरूरत नही है इन्हें सीधी ससम्मान डिग्री दे दी जाए। इन्हें हमारे यहाँ भेज दो हमे ऐसे व्यक्तियों की बहुत जरूरत है। इसी दौरान 1982 में पुणे के जाने माने रिसर्च इंस्टीट्यूट आडवाणी अर्लेकोन में लेजर रिसर्च साइंटिस्ट के पद पर चयनित किया गया। वहां 3 वर्ष तक कार्बनडाइ ऑक्साइड लेज़र पर रिसर्च की। इसी दौरान कर्नाटक की विख्यात रिसर्च लैब बी ई एम एल में 1985 में इन्हें बहुत अच्छ पैकेज पर अपॉइंटमेंट मिला।

वहां आर्थिक दृष्टिकोण से तो परिपक्वता मिली लेकिन लेज़र डेवलपमेंट के लिए कार्य करने की स्वतंत्रता नही मिली। वहाँ इन्होंने सोचा कि यदि इस सरकारी नौकरी को करते रहे तो पैसा तो खूब मिल जाएगा लेकिन मेरे हुनर को जंग लग जाएगा और तुरंत इस नौकरी को लाल झंडी दिखाकर पूना आ गए। यहाँ इन्होंने सरकारी लोन लेकर अपना व्यवसाय शुरू करना चाहा लेकिन परिवार की आर्थिक स्थिति और किसी के सामने हाथ ना फैलाने के स्वाभिमान के कारण कर नही पाए। इसी समय इनके पास आडवाणी अर्लिकोंन से एक बार फिर से ऑफर आया कि आपकी हमे बहुत जरूरत है। और बिना देर किए इन्होंने फिर से जॉइन कर लिया। रिसर्च के हुनर को आयाम देने के लिए इन्होंने लंदन की फेमस कॉलेज इम्पीरियल कॉलेज ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी को पत्र लिखा कि मुझे स्वयं के खर्च पर आपकी लैब में एक महीने आने की स्वीकृति प्रदान करें।

इनके शोध कार्यों को देखकर उन्होंने वहां से सीधा साइंटिस्ट की पोस्ट पर अपॉइंटमेंट लेटर भेज दिया। इन्होंने तुरंत स्वीकार किया और परिवार को पूना छोड़कर 1985 मे पोस्ट डॉक्ट्रेट के लिए लंदन चले गए। वहाँ जाकर इन्हें अपनी जिज्ञासा को तृप्त करने और उच्च स्तरीय रिसर्च करने की साधन सुविधाएं मिली। इन्होंने खूब मेहनत की और लेजर टेक्नोलॉजी में आत्मसात किया। शाकाहारी होने के कारण वहां खुद खाना बनाते और दिन रात रिसर्च लैब में नवीन तकनीकों पर शोध करते। बाहर का सूर्य कैसा है इन्होंने नही देखा और लंदन की सुंदरता के एहसास लिए बगैर सारा परिश्रम केवल नवीन लेजर टेक्निक को डेवलप करने में लगाते रहे। इसी दौरान लिवरपूल यूनिवर्सिटी में इन्होंने 1988 मे लेज़र की पूरी लैब सेटअप की जहां आज विश्व भर के अनेकों वैज्ञानिक शोध करते है। पोस्ट डॉक्ट्रेट होते ही उन्हें लंदन में ढेरों हाई पैकेज की नौकरियां ऑफर हुई लेकिन इन्होंने कहा कि मुझे दुख होता है

यह जानकर की लेजर की खोज करने वाला एक भारतीय वैज्ञानिक था लेकिन उसने विदेशी कंपनी के लिए जीवन भर कार्य किया। मेरे पास टेक्नोलॉजी का ज्ञान है में विदेश के लिए नही अपने देश के लिए ही कार्य करूँगा। इतने अच्छे प्रस्तावों को ठुकराकर राष्ट्र सर्वोपरि की भावना को लेकर यह भारत लौट आये। यहां इन्हें विदेशी कम्पनियों की डीलरशिप और इंडियन ब्रांच के इंचार्ज के ढेरों प्रस्ताव मिले लेकिन इन्होंने सब ठुकराकर भारत के स्वाभिमान को ऊंचा किया। यहां इन्हें अनेकों रिसर्च सेंटर्स के ऑफर आये लेकिन इन्होंने कहा अब में किसी और के सपने को साकार करने के लिए नौकरी नही अपितु अपने सपने को साकार करने के लिए व्यवसाय करूँगा। और इन्होंने पूना में बिना किसी बाहरी आर्थिक सहायता के और बैंक लोन के 1990 में भारत की पहली लेजर मैनुफैक्चरिंग कंपनी सुरेश इंदु लेजर की स्थापना पुणे में की।

शुरू शुरू में लेजर प्रोडक्ट्स के ग्राहक नही होने से इन्होंने आर्थिक स्थिति को मजबूत करने के लिए शिक्षण संस्थानों और रिसर्च लैब्स के लिए फिजिक्स लेब के इंस्ट्रूमेंट्स , ऑप्टिकल लेंस बनाये। और साथ मे अपनी रिसर्च जारी कर भारत की पहली इकोनॉमिक उच्च गुणवत्ता की कार्बनडाई ऑक्साइड लेजर मशीन डेवेलोप कर सबको चोंका दिया। धीरे धीरे लेजर टेक्नोलॉजी की विभिन्न एप्लिकेशन को लोकल मार्केट के व्यवसाय के अनुरूप मशीने तैयार की। और आज इनकी एस आई एल अडवांस्ड लेजर मशीन भारत के ही नही विश्व के मटेरियल प्रोसेसिंग व्यवसायों में यूज की जा रही है साथ ही साथ एंटरप्रेन्योरशिप, स्किल डेवलोपमेन्ट की ट्रेनिंग एवं विभिन्न शोध शिक्षण संस्थानों की रिसर्च में भी महत्वपूर्ण योगदान दे रही है। छोटी सी जगह से शुरू की गई इनकी कंपनी सुरेश इंदु लेजर के आज पूरे भारत मे अलग अलग राज्यो में एक दर्जन से अधिक ब्रांच है।

10 हजार की मशीन बनाने से शुरू कर आज 5 करोड़ तक की मशीन बना रही है। माननीय प्रधानमंत्री जी नरेंद्र मोदी जी ने तो 2014 में मेक इन इंडिया की शुरुआत की लेकिन लेजर किंग डॉ शाह ने तो 1990 में ही इस पर क्रियान्वयन कर दिया।

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