आज है भारतीय सिनेमा के पितामह का जन्मदिन, जिनकी याद में दिया जाता है पुरूस्कार

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जिस वक्त महात्मा गांधी और कई सारे स्वतंत्रता सेनानी देश को आजाद कराने की जद्दीजहद में थे, वहीं दूसरी ओर एक व्यक्ति भारत का एक नया अध्याय लिख रहा था. उसके साथियों ने उनसे पागल करार कर दिया, लेकिन उसने इसकी परवाह किये बगैर भारत के उस सुनहरे भविष्य की नींव रखी. जिस पर आज भारतीय सिनेमा टिका हुआ है. आज उन्ही भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहेब फाल्के का जन्मदिन है.

दादा साहेब फाल्के पुरस्कार

दादा साहेब फाल्के पुरस्कार सिनेमा के क्षेत्र में भारत का सर्वोच्च पुरस्कार है, जिसे प्रतिवर्ष राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समारोह में दिया जाता है. इस पुरस्कार का प्रारंम्भ दादा साहेब फाल्के के जन्म शताब्दी वर्ष 1969 से हुआ. ‘लाइफ टाईम अचीवमेंट अवार्ड’ के रूप में दिया जाने वाला ‘दादा साहेब फाल्के पुरस्कार’ भारत के फ़िल्म क्षेत्र का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार है. सबसे पहला दादा साहेब फाल्के सम्मान देविका रानी को दिया गया था.

गूगल ने दी श्रद्धाजंलि

भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहेब फाल्के के 148वें जन्मदिन के मौके पर गूगल ने डूडल बनाकर उन्हें श्रद्धांजलि दी है.दादा साहेब फाल्के का जन्म 30 अप्रैल, 1870 को महाराष्ट्र के नासिक शहर में हुआ था.फाल्के भारतीय फिल्मों के पहले फिल्म निर्माता, निर्देशक और स्क्रिप्टराइटर थे. अपने 19 साल के करियर के दौरान उन्होंने 95 फिल्में और 27 शॉर्ट फिल्म बनाई थीं. उन्होंने पहली मूक फिल्म ‘राजा हरिशचंद्र’ साल 1913 को बनाई थी. इसे भारत की पहली फीचर फिल्म का दर्जा प्राप्त है.आज हम दादासाहब फाल्के के जीवन से जुड़ी कुछ ऐसी ही बातें लेकर आये हैं, जिनसे शायद आप अब तक अंजान हैं…

शुरूआती जीवन

दादासाहब का असली नाम धुंढीराज गोविंद फाल्के था. नासिक महाराष्ट्र में जन्मे धुंढीराज के पिता संस्कृत के प्रोफेसर थे. धुंढीराज ने बड़े होकर मुंबई के मशहूर जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स में एडमिशन लिया. दादा साहब फाल्के ने मूर्तिशिल्प, इंजीनियरिंग, ड्रॉइंग, पेंटिंग और फोटोग्राफी का अध्ययन किया. इसके बाद उन्होंने गोधरा में एक फोटोग्राफर के रूप में काम कर अपने करियर की शुरूआत की थी.फिल्म के प्रति उनका रुझान तब बढ़ा जब उन्होंने प्रसिद्ध चित्रकार राजा रवि वर्मा के साथ काम करने के बाद जर्मन के मशहूर जादूगर के साथ मेकअप मैन बनकर काम किया.

‘लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ फिल्म से पढ़ी भारतीय सिनेमा की नींव

इसके बाद वर्ष 1909 में उन्हें जर्मनी जाने का मौका मिला और वहां पर रहकर उन्हें सिनेमाई कला से जुड़ी मशीनों को जानने का मौका मिला. इसके बाद 1910 में उन्होंने ‘लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ फिल्म देखी जो उनके जीवन में एक प्रेरणा बनकर उतरी. इसी से उन्हें फिल्म निर्माण की प्रेरणा मिली. अपने फिल्मी करियर की शुरुआत करने से पहले दादासाहब ने फिल्मों का गहन अध्ययन किया और 5 पाउंड में कैमरा खरीद कर उस पर 20 घंटे से ज्यादा समय तक अभ्यास किया.

फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ में लड़के ने निभाई थी तारामती का किरदार

दादा साहेब लंदन से फ़िल्म बनाने की तकनीक तो सीख आए लेकिन पहली फ़ीचर फ़िल्म राजा हरिश्चंद्र बनाना अपने आप में एक बड़ा संघर्ष था. फाल्के की पत्नी सरस्वती बाई ने अपने गहने गिरवी रखकर पैसे जुटाने में मदद की.पुरूष अभिनेता भी मिल गए लेकिन तारामती का किरदार निभाने के लिए कोई अभिनेत्री नहीं मिल रही थी.

दादा साहेब मुंबई के रेड लाइट एरिया में भी गए. वहां पर औरतों ने उनसे पूछा कि कितने पैसे मिलेंगे. उनका जवाब सुनकर उन्होंने कहा कि जितने आप दे रहे हो उतने तो हम एक रात में कमाते हैं. एक दिन वो होटल में चाय पी रहे थे तो वहां काम करने वाले एक गोरे-पतले लड़के को देखकर उन्होंने सोचा कि इसे लड़की का किरदार दिया जा सकता है. उसका नाम सालुंके था . फिर उसने तारामती का किरदार निभाया. 21 अप्रैल 1913 को ये फिल्म दिखाई गई. इस फिल्म के लेखन से लेकर फोटोग्राफी और सम्पादन का काम खुद दादासाहेब ने किया.

अल्जाइमर से हुई थी मौत

साल 1937 में उन्होंने फिल्मों से सन्यास ले लिया. इस दौरान उन्होंने अंतिम फिल्म ‘गंगावतरण’ बनाई. अंतिम बरसों में दादा साहेब अल्ज़ाइमर से जूझ रहे थे. लेकिन उनके बेटे प्रभाकर ने उनसे कहा कि चलिए नई तकनीक से कोई नई फ़िल्म बनाते हैं. उस समय अंग्रेजों का साम्राज्य था और फ़िल्म निर्माण के लिए लाइसेंस लेना पड़ता था. जनवरी 1944 में दादा साहेब ने लाइसेंस के लिए चिट्ठी लिखी. 14 फ़रवरी 1944 को जवाब आया कि आपको फ़िल्म बनाने की इजाज़त नहीं मिल सकती. उस दिन उन्हें ऐसा सदमा लगा और 74 वर्ष की उम्र में 16 फरवरी 1944 को फिल्म जगत के जनक ने दुनिया को अलविदा कह दिया.

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