इस तरह शुरू हुई थी आज़ादी की पहली लड़ाई की कहानी

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आज़ादी की लड़ाई कब शुरू हुई शुरुआत में क्रान्तिकारियो को कितनी यातनाओं का सामना करना पड़ा , इन सभी सवालों के जवाब हम सभी जानने की इच्छा रखते है सबसे पहले जब क्रान्तिकारियो ने आजादी के लिए अपनी आवाज़ उठाई थी उन क्रान्तिकारियो को अंग्रजो ने काला पानी की सजा सुनाई थी ! ये सजा कैदियों को सेल्युलर जेल में दी जाती थी जहा पर न तो पहनने को ठीक से कपड़े दिए जाते थे और न ही खाना , और काम बहुत सारा अगर किसी ने भी उनका काम नही किया तो उसे कोड़े से मारा जाता था बहुत दर्दनाक भरी थी आज़ादी की पहली लड़ाई की कहानी –

आजादी की लड़ाई की पहली शुरुआत 1857 से हुई थी, 1857 को भारत के क्रांतिकारियों ने पहली बगावत की थी उस समय भारत पर अंग्रजो का राज था अंग्रेजो की ताकत तो उस समय काफी हद तक थी उन्होंने इस बगावत तो किसी तरह से रोक कर दबा दिया और जिन लोगो ने आजादी की क्रान्ति को जलाया था उन्हें अंग्रेजो ने कही दूर लेजाकर सजा देने की निति तैयार की(ये सजा आज काला पानी के नाम से मशहूर है) और अंडमान निकोबार की राजधानी पोर्ट ब्लेयर में 1896 में सेल्युलर जेल का निर्माण शुरू किया ! इस विशाल जेल में 698 सेल बनाई गई ताकि यहाँ लाये जाने वाले क्रांतिकारियों को अलग अलग रखा जा सके ! सभी को अलग अलग सेल में रखे जाने के कारण इसे सेल्युलर जेल कहते हैं इस जेल का निर्माण कार्य 10 मार्च 1906 को पूरा हुआ ! शुरुआत में यहा पर 200 क्रांतिकारियों को कैद किया बाद में ये संख्या बदने लगी और अनेक संख्या में भारतीय क्रांतिकारियों को इस जेल में बंद किया गया !

जेल में बंद स्वंत्रता सेनानी को हथकड़ियो और बेड़ियों से बांधा जाता था स्वतन्त्रता सेनानियों का हर दिन मानो मौत भी बुरा होता था और मौत तो ऐसी दी जाती थी जिसको जानकर आपकी रूह काप उठेगी ,तोप कर मुह की और उनका मुह डालकर उन्हें मौत की नींद सुला दिया जाता था , फासी की तो गिनती ही नही , कई लोगो को वहा पर फ़ासी दी गयी ! हर रोज़ उन्हें बैल की तरह काम में जौत दिया जाता था और बेल्ट से इतनी दर्दनाक मार दी जाती थी कि अगले दिन वो उठने की हालत में भी नही रहते थे , फिर भी उन्हें काम करना ही पड़ता था इसलिए इसे काला पानी की सजा के नाम से जाना जाने लगा ! भागने की कोशिश तो कई सेनानियों ने की लेकिन वो गिरफ्तार हो ही जाते थे कुछ तो भाग कर आत्महत्या भी कर लेते थे ! कपड़े भी ऐसे जिससे पूरा शरीर छिल जाता था टाट के कुरते बनाकर उन्हें पहनने को दिया जाता था !

1930 की बात है अंग्रेजो के अत्याचार के खिलाफ महावीर सिंह नामक क्रांतिकारी ने भूख हड़ताल कर ली, अंग्रजी सिपाहियों ने उनकी भूख हड़ताल तोड़ने के लिए उनको जमीन पर लेटाकर चारो तरफ से हाथ पैर पकडकर जबरदस्ती दूध पिलाने की कोशिश की, लेकिन महावीर सिंह ने अपना मुह नही खोला डीएम घुटने के करण उनकी मौत हो गयी लेकिन उन्होंने हड़ताल नही तोड़ी ! महावीर सिंह की मौत के बाद भी ये भूख हड़ताल जारी रही , सभी स्वतन्त्रता सेनानी ने इस विरोध में अपना समर्थन दिया उसके बाद 1937 में महात्मा गाँधी और रविन्द्र नाथ टैगोर ने भूख हड़ताल के मामले में अपना समर्थन दिया और अंग्रजो को आखिरकार सभी कैदियों को उनके घर वापस भेजने का निश्चय किया !

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इस सेल्युलर जेल पर जापान ने कब्ज़ा कर लिया और अंग्रजो को वहा पर बंदी बना लिया गया !

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