कई भाषाओ के विद्वान कहे जाने वाले फिराक गोरखपुरी एक शिक्षक होने के साथ ही एक सिविल सर्वेंट भी थे. उनके नाम के साथ हमेशा से ही विद्वान शब्द आखिर क्यो जुदा हुआ है? जानिए उनके बारे मे दिलचस्प बाते.
जन्म और वास्तविक नाम :-
रघुपति सहाय याने फ़िराक़ गोरखपुरी ऊर्दू के बहुत ही जाने माने शायर थे. उनका जन्म 28 अगस्त 1896 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में हुआ था. अपने साहित्यिक जीवन का आरंभ फ़िराक़ गोरखपुरी ने ग़ज़ल से प्रारम्भ किया था. भारतीय संस्कृति की गहरी समझ होने एवं फ़ारसी, हिन्दी, ब्रजभाषा के कारण उनकी शायरीयो में भारत की मूल पहचान बस गई थी.
शिक्षा :-
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अपनी शिक्षा प्राप्त करने वाले फ़िराक़ गोरखपुरी ने बी. ए. में प्रदेश में चौथा स्थान हासिल किया था. सिविल की परीक्षा उत्तीण करने के बाद वह डिप्टी कलेक्टर के पद पर भी काबिज हुये थे. हिंदी के अलावा उर्दू ,अंग्रेजी, और फारसी भाषाओँ में भी उन्हे महारत हासिल थी.
विवाह :-
29 जून 1914 को जमींदार विन्देश्वरी प्रसाद की बेटी किशोरी देवी से फ़िराक गोरखपुरी जी का विवाह हुआ था. एक छत के नीचे पत्नी के साथ रहते हुए भी उनकी व्यक्तिगत ज़िंदगी एकाकी मे ही बीती. युवावस्था में उनका विवाह वन की सबसे बड़ी कष्टप्रद घटना थी.
पुरस्कार और रचनाएं :-
फिराक गोरखपुरी को उनकी रचनाओ के लिए कई पुरस्कार दिये गए, जिसमे साहित्य अकादमी पुरस्कार, सोवियत लैण्ड नेहरू अवार्ड और ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका था.
साल 1970 में साहित्य अकादमी का उन्हे सदस्य भी मनोनीत किया गया था. साल 1960 में उन्हें कविता संग्रह गुल-ए-नगमा पर साहित्य अकादमी का पुरस्कार से सम्मानित किया गया, इसी रचना पर वह साल 1969 में उन्हे ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया. उन्होंने साधु और कुटिया एक उपन्यास और अन्य कई कहानियाँ भी लिखी थीं. उन्होने अपने जीवन मे उर्दू, हिन्दी के अलावा अंग्रेज़ी भाषा में दस गद्य कृतियां भी प्रकाशित हो चुकी हैं.
मृत्यु :-
3 मार्च 1982 को फिराक गोरखपुरी ने गजलों और नज्मों की दुनिया को अलविदा कह दिया.
फिराक गोरखपुरी की यादगार नज्में :-
कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम
उस निगाह-ए-आशना को क्या समझ बैठे थे हम
रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गये
वाह री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम
होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल-ए-दिल को हो सकी
इश्क़ में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम
बेनियाज़ी को तेरी पाया सरासर सोज़-ओ-दर्द
तुझ को इक दुनिया से बेग़ाना समझ बैठे थे हम
भूल बैठी वो निगाह-ए-नाज़ अहद-ए-दोस्ती
उस को भी अपनी तबीयत का समझ बैठे थे हम
हुस्न को इक हुस्न की समझे नहीं और ऐ ‘फ़िराक़’
मेहरबान नामेहरबाँ क्या क्या समझ बैठे थे हम