एक मुठ्ठी चावल से शुरू किया स्वयं सहायता समूह, महिलाओं को बना रही आत्मनिर्भर

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आज हम आपको एक ऐसी महिला की कहानी बताने जा रहे है जिसका विवाह 9 वर्ष की उम्र में हि हो गया था, जिस उम्र में शांता को खेलना चाहिए था उसी उम्र में घर बार चलाने को मिला। जी हां इन महिला का नाम शांता है, तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई से यही कोई दो सौ किलोमीटर की दूरी पर है शांता का गांव, कोडापट्टिनम जहा पर उनका विवाह हुआ। जहा पर लोग झोपड़ियों-कच्चे मकानों में रहते थे। और उनके लिए दो वक़्त का खाना जुटाना मुश्किल होता था। शांता भी बेहद ग़रीब परिवार से ताल्लुक़ से ताल्लुक रखती थी। उस गाँव में घर में आम तौर पर कमाने वाला एक ही इंसान होता था, घर का मर्द और वो भी शराबी गाँव की महिलाओं की हालत का अंदाजा तो अब आप लगा ही सकते है। वो तो जैसे एक अलार्म क्लॉक थी, पति-बच्चों का ख़याल रखो, खाना पकाओ खिलाओ, ये सब करते करते कई बार तो औरतों को दो वक़्त का खाना भी नहीं मिलता था।

गाँव की ये हालत नही रास आई शांता को

शांता की हालत भी ऐसी ही हो गयी थी लेकिन उन्होंने ये जिम्मेदारी भी निभा ली। जैसे घर के काम-काज से जैसे ही फ़ुरसत मिलती , तो पास-पड़ोस की महिलाओं से बाते कर लेती। सबकी मुसीबतें सुन-सुनकर, उनके दिल में ऐसे हालात बदल डालने का इऱादा मज़बूत होता गया।

शांता को ये सब बिलकुल भी अच्छा नही लगता था लेकिन करे भी तो क्या ? ऐसा करते हुए 20 साल गुज़र गये। शांता ने हार नही मानी और उन्हें नई उम्मीदों का दरवाज़ा खुलता दिखाई दिया , जब उन्हें याद आया की आज से क़रीब पंद्रह साल उन्हें एक सरकारी दफ़्तर में काम करने का ऑफ़र मिला था लेकिन इस काम के उन्हें पैसे नहीं मिलने थे , दफ्तर वाले उन्हें सिर्फ आने जाने का किराया देने को तैयार थे। शांता को भी लगा, पैसे भले न मिलें, वो बाहर निकलेंगी, दुनिया देखेंगी तो ख़ुद की क़िस्मत बदलने के नए रास्ते भी दिखेंगे। और वह नौकरी शांता ने जॉइन कर ली।

नौकरी से खुले रास्ते

शांता का ये दफ्तर महिलाओं को स्वयं सहायता समूह, यानी सेल्फ़ हेल्प ग्रुप बनाकर काम करने में मदद करता था। शांता ने सोचा की अगर गाँव की सभी महिलाए थोड़े-थोड़े पैसे जोड़ेंगी तो उन पैसो से कोई न कोई काम शुरू हो जाएगा। फिर क्या था शांता ने सभी महिलाओं से इस बारे में बात की शांता ने कहा सभी 10-10 रू मिलायेंगे। लेकिन गाँव की महिलाओं के पास इतने पैसे भी नहीं थेऔर न ही किसी को शांता का ये आइडिया ही समझ आया।

बना लिया महिलाओं का ग्रुप

लेकिन शांता ने हार नही मानी , उन्होंने घर घर जाकर महिलाओं को मनाया , और कहा की रोज घर में थोडा-थोडा चावल बचाए और जब एक किलो जमा हो जाएगा , तो उसे ले जाकर पास के बाज़ार में बेच देंगे। इससे दस रुपए महीने जमा होने लगे,सभी महिलाए राज़ी हो गयी। शांता की क़रीब दो साल की कोशिशों के बाद , उन्होंने अपने गांव की बीस महिलाओं को दस रुपए महीने के योगदान से एक सेल्फ़ हेल्प ग्रुप बनाने के लिए राज़ी कर लिया था।

बैंक ने मना किया पैसे देनें से

सरकारी बैंक, ऐसे समूहों के पैसे के बराबर रकम कर्ज़ देते थे, ताकि महिलाएं मिलकर छोटा-मोटा काम कर सकें लेकिन शांता के सामने नई समस्या खड़ी हो गयी। बैंक वालो से बहुत कोशिश करने के बाद भी उन्हें नाकामी हासिल हुई। फिर उन्होंने अपने दफ्तर वालो से बात की लेकिन दफ्तर वालो ने भी हाथ खड़े कर दिए और कहा कि अपनी लड़ाई उन्हें ख़ुद लड़नी होगी। दफ्तर वालो ने शांता को एक राय जरुर दी की वो अकेले बैंक न जाएं, बल्कि, अपनी दोस्तों के साथ जाएं, तब बैंक के अफ़सर उन्हें सीरियसली लेंगे।

शांता ने दफ्तर वालो की राय के अनुसार सभी महिलाओं को लेकर बैंक पहुच गयी आख़िरकार उनकी ये कोशिश भी कामयाब हुई।शांता और सभी महिलाओं का पहला बिजनेस प्लान बैंक ने मान लिया और कर्ज़ देने को भी राज़ी हो गया।

दूध का धंधा शुरू किया

शांता ने उन पैसो से कुछ गाये खरीदी और दूध का धंधा शुरू किया। शांता की इन कोशिशो ने गाँव की महिलाओं में आत्मविश्वाश और हौसला भर दिया था, अब अगर कोई भी परेशानी आती तो गाँव की महिलाए मिलकर पैसा जमा कर लेती और और अपनी हर परेशानी का हल निकाल लेती। अब बैंक भी इनकी कोशिशो पर यकीन करने लगी थी।

महिलाओं का एक और ग्रुप तैयार किया

इसके बाद शांता ने महिलाओं का एक ग्रुप और तैयार किया इस ग्रुप में 20 महिलाए थी। इस ग्रुप की मदद से शांता ने सिलाई मशीनें खरीदी और सिलाई का काम शुरू कर दिया। जब शांता ने देखा की शादियों में म्यूज़िक सिस्टम भी किराए पर दिए जाते है तो उन्होंने म्यूज़िक सिस्टम भी खरीद लिए। जिसे वो में किसी त्यौहार या शादी के वक़्त किराए पर देती थी इससे भी उन्हें काफी मदद मिलती थी।

उसके बाद शांता ग्रुप बनाती गयी , जब एक के बाद एक शांता के कारोबारी प्लान सफल होने लगे, तो उन पर लोगों का भरोसा बढ़ता गया। जहा पहले वो 10 महिलाए भी जुटा पा रही थी आज महिलाए उनसे जुड़ना चाहती है। कारोबार चला, तो पैसे आने लगे,और देखते ही देखते गांव की कच्ची झोपड़ियां पक्के मकानों में में बदलने लगी। और घर में जरुरत का हर सामान आने लगा।

महिलाएं अब अपने पेरो पर खड़ी हो गयी हर बात के लिए अपने पतियों के भरोसे नहीं थीं। शांता ने कभी पदाई नही की मगर वो अपने बेटे को अच्छी शिक्षा देना चाहती है। गांव की दूसरी महिलाओं ने भी शांता की देखा-देखी अपने बच्चों की पढ़ाई और दूसरी ज़रूरतों पर ध्यान देना शुरू कर दिया। आमदनी अच्छी होने से महिलाए कुछ पैसे बचाकर सोने-चांदी में निवेश किया, तो किसी ने बैंक में पैसे जमा कराए। वो बैंक जो कभी इन महिलाओं की बात सुनने को तैयार नहीं थे, आज इन महिलाओं को सम्मान की नज़र से देखते थे। दूसरों को उनकी मिसालें दिया करते थे.

शोहरत पहुची चेन्नई तक

साल 2009 की बात है शांता जिस दफ्तर में काम करती थी वहां उनके साथियों से उन्हें पता चला की चेन्नई की एक कंपनी बैग बनाने का काम करने वाले लोगो को तलाश रही है जो उनका काम कर सके और शांता तो इस पल का जैसे इंतज़ार ही कर रही थी। उन्होंने अपने पुराने साथियों की मदद से चेन्नई की कंपनी से बात शुरू की शांता का ट्रैक रिकॉर्ड अच्चा था इसलिए कंपनी ने बैग बनाने का ठेका दे दिया। शांता के लिए ये बहुत बड़ी कामयाबी थी, शांता के सेल्फ हेल्प ग्रुप की शोहरत राजधानी चेन्नई तक जा पहुंची थी, नई उम्मी के दरवाज़े खुल रहे थे। उनकी बैग बनाने वाली यूनिट में 26 महिलाएं काम करती हैं।

आज शांता ने गाँव की सारी महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाया है , जिस काम को शुरू करने के पहले ही उनके पतियो ने उनके साथ मार पिट की थी आज वो उन्हें कुछ बोलते भी नही। शांता के मज़बूत इरादों ने गांव की महिलाओं को सम्मान से जीने का मौक़ा दिया है। उनके गांव की कई महिलाएं, जो कभी अपने पतियों के अंगूठे तले रहती थीं, वो आज सिर उठाकर जीती हैं। कइयों को अपने शराबी पतियों से छुटकारा मिला है।

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