1100 गरीब बच्चों की पढ़ाई वास्ते एक रुपये मांगते हैं यह ‘मानद’ पिता, ताकि बच्चों का भविष्य बना सके बेहतर

0

बरगद की छांव सरीखे होते हैं पिता. हर धूप और परेशानी झेल जाते हैं मगर बच्चों पर दिक्कतों का एक तिनका तक नहीं गिरने देते. पिता रोटी हैं, कपड़ा है, मकान है, पिता छोटे से परिंदें का बड़ा आसमान है. यह स्वं पंडित ओम व्यास की कविता की ये लाइनें असीम आकाश का विस्तार और संमदर सी गहराई समेटे हुए है. पिता ही वह शख्स होता है, जो बच्चे को खुद से ज्यादा कामयाब होता देखकर खुश होता है. सफलता के आसमां पर बच्चे उड़ाने से प्रफुल्लित होता है. इनसे भी ऊपर वो शख्स हैं जिनका खून का रिश्ता तो नहीं है लेकिन वे एक पिता का फर्ज निभा रहे हैं. ऐसे ही कुछ प्रेरणापुंज बने पिता तुल्य लोगों से आपको आज फादर्स डे के अवसर पर रुबरू करवा रहे हैं.

1100 बच्चों के पिता हैं आलोक

अलीगढ़ के आलोक वार्ष्णेय मूल रूप से हैं तो दवा कारोबारी, लेकिन आज इनकी पहचान 1100 बच्चों के मानद पिता की भी हैं. बेशक इन बच्चों से उनका खून का रिश्ता नहीं हैं, लेकिन जिस तरह इनकी शैक्षिक परवरिश के लिए वह जी-जान से जुटे हुए हैं, वो कोई पिता ही कर सकता है. वह जरूरतमंद बच्चों का स्कूलों में दाखिला कराते हैं. उन्हे मुफ्त किताबें दिलाते हैं. समय से एक-एक बच्चे की फीस चुकाते हैं. आज उनकी मदद से बच्चे स्नातक और इंजीनियरिंग तक कर रहे हैं.

छोटी सी घटना ने बदल दी जिंदगी

एक छोटी सी घटना ने आलोक के सोचने और जीने का नजरिया बदल दिया. बात साल 2005 है. आलो फफाला मेडिकल मार्केट स्थित अपने दवाखाने पर बैठे थे कि एक महिला कुछ पैसे मांगने आई. सवालिया निगाहें देखकर बोली, बच्चे का स्कूल में दाखिला कराना है. पढ़ाई के लिए पैसे? यह बात उन्हे कुछ बेतुकी लगी. उन्होंने पैसे तो नहीं दिए. लेकिन उस औरत से उसका घर और पता पूछ लिया. वह उसी शाम अचानकर उस औरत के घर पहुंच गए. वहां उन्होने गरीबी का ऐसा बसेरा देखा कि उनकी आंखों में आंसू आ गए. उस महिला के पास दो जून की रोटी तक नहीं थी लेकिन वो अपने बच्चे को पढ़ाना चाहती थी.

एक-एक रुपए से शुरू किया कांरवा

तभी से आलोक ने ठान लिया कि वह ऐसे परिवारों के बच्चों को शिक्षित करेंगे, जो सक्षम नहीं है. यह अकेले के बस का नहीं था. लिहाजा, मदद का प्लान बनाया लेकिन उन्हे पता था कोई भी उन्हें बड़ी रकम नहीं देगा. इसलिए उन्होने रोजाना एक रुपये से शुरुआत की और इस तरह एक-एक रुपया मांगना शुरु किया. शुरूआती दिनों में तमाम लोगों ने आलोक को हतोत्साहित भी किया. लेकिन कुछ वक्त बाद एक कारंवा बन गया.

आज उनकी स्वयं की संस्था भी है

साल 2006 में उन्होने वात्सल्य सेवा संस्थान नामक संस्था बनाई. वर्तमान में इसके 15सौ सदस्य है, जो प्रतिदिन 1रुपये के हिसाब से सालान 365रुपये देते हैं. इनसे हर साल करीब साढ़ें पांच लाक रुपये स्वत जुट जाते हैं. लोगों का उनपर विश्वास ऐसा जम गया है कि लोग पैसे लेने के लिये आलोक को बुलाते हैं. उनसे प्रेरित होकर तमाम संपन्न लोग बच्चों की पढ़ाई के लिए गोद भी लेने लगे हैं. आज उनकी मदद से 1100 से ज्यादा बच्चे मनचाहे सरकारी स्कूलों और निजी स्कूलों में शिक्षा पा रहे हैं.

Leave A Reply

Your email address will not be published.