पद्मश्री : भारतीय पुरातात्विद डॉ विष्णु श्रीधर वाकणकर

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ऐतिहासिक सरस्वती नदी के उद्गम स्थल और उसके प्रवाह मार्ग को खोजने के प्रयासों का जब भी उल्लेख होता है तो उसमें भारत के एक प्रमुख पुरातात्विद और संघ के स्वयं सेवक रहे पद्मश्री डॉ विष्णु श्रीधर वाकणकर का नाम जरूर लिया है. श्री वाकणकर ने ही लुप्त हो चुकी सरस्वती नदी के भूमिगत मार्ग को सेटेलाइट की मदद से खोजा था. इसके अलावा श्री वाकणकर ने मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के पास भीमबेटका की गुफाओं की खोज भी की थी. एक अनुमान के अनुसार यहां उकेरे गए चित्र लगभग 1,75,000 वर्ष पुराने हैं. तो चलिए आज हम जानते हैं देश के महान पुरातात्विद रहे डॉ विष्णु श्रीधर वाकणकर के बारे में :

जन्म और शिक्षा :

डॉ विष्णु श्रीधर वाकणकर का जन्म मध्यप्रदेश के नीमच में 4 मई 1919 में हुआ था. श्री वाकणकर को हरिभाऊ के नाम से भी जाना जाता है. श्री वाकणकर को बचपन से इतिहास, पुरातत्व और चित्रकला में गहरी रूचि थी. यही कारण है कि अपनी प्रारम्भिक शिक्षा पूर्व करने के बाद श्री वाकणकर ने उज्जैन के विक्रमशिला विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया. विक्रमशिला विश्वविद्यालय से पढ़ाई पूरी करने के बाद श्री वाकणकर यहीं पर पढ़ाने लगे.

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राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से नाता :

श्री वाकणकर का राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से गहरा नाता रहा है. वें संघ के स्वयं सेवक थे और बचपन से ही संघ की विचारधारा से काफी प्रभावित थे. यहीं कारण है कि वह छात्र जीवन के दौरान ही अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़ गए और मध्य प्रदेश अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के अध्यक्ष भी बने. संघ से जुड़े होने के कारण श्री वाकणकर को देश के कई हिस्सों में जाने का मौका भी मिला, जिससे उन्होंने भारतीय संस्कृति, इतिहास और कला को समझा. साल 1981 में श्री वाकणकर संस्कार भारती की स्थापना के समय उसके महामंत्री बने.

सरस्वती नदी और भीमबेटका शैलाश्रय की खोज :

वैसे तो अपने जीवनकाल में श्री वाकणकर ने कई ऐतिहासिक काम और खोज की हैं, लेकिन उन्हें सरस्वती नदी और भीमबेटका शैलाश्रय की खोज करने के लिए ख़ास याद किया जाता है. श्री वाकणकर द्वारा साल 1957 में खोजी गई भीमबेटका की गुफाओं में बने चित्र पाषाणकालीन मनुष्य के जीवन को दर्शाती है. यहां वन्य प्राणियों के शिकार, घोड़े, हाथी, बाघ आदि के चित्र भी उकेरे गए हैं. इससे यहां रहने वाले मनुष्य के जीवन जीने के तरीके के बारे में पता चलता है. यह श्री वाकणकर के प्रयासों का परिणाम है कि साल 2003 में इन्हें विश्व धरोहर घोषित किया गया है। इसके अलावा श्री वाकणकर ने प्रदेश की सतपुड़ा और विध्याचल पर्वतश्रंखलाओं में शैलचित्रों का व्यापक अनुसंधान किया है. उन्होंने 4000 से अधिक शैलचित्रों की खोज और उनका अध्ययन किया. यहीं कारण है कि श्री वाकणकर को भारतीय शैलचित्रों का पितामाह भी कहा गया.

लुप्त हुई सरस्वती नदी के भूमिगत मार्ग को सेटेलाइट की मदद से खोजने का श्रेय भी श्री वाकणकर को ही जाता है. इसके लिए श्री वाकणकर ने लोककथाओं और लोकमान्यताओं का सहारा लिया. श्री वाकणकर ने एक शोधकर्ताओं का दल बनाया, जिसमें पुरातत्वविद्, भूवैज्ञानिक, हिमालयन विशेषज्ञ, लोक कलाकारों छायाकार सम्मिलित थे. इस दल के साथ श्री वाकणकर ने एक महीने की लंबी सर्वेक्षण यात्रा भी की. इस दौरान उन्होंने वहां मिलने वाले सिक्कों और अन्य चीजों का गहराई से अध्ययन किया. यजुर्वेद के अनुसार पांच नदियां अपनी पूरी धारा के साथ सरस्वती नदी में मिल जाती है. श्री वाकणकर ने बताया था कि इन पांच नदियों के संगम के सूखे हुए अवशेष राजस्थान के बाड़मेर, जैसलमेर के पास पंचभद्र तीर्थ पर देखे जा सकते हैं. श्री वाकणकर सरस्वती नदी और सारस्वत सभ्यता पर विस्तार से काम करना चाहते थे, लेकिन उनके असमय निधन के कारण यह काम अधुरा रह गया.

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श्री वाकणकर ने डोंगला गाँव के उस सटीक जगह का पता भी लगाया, जहां कर्क रेखा और स्थानीय देशांतर एक-दूसरे को काटते है. श्री वाकणकर ने मध्यप्रदेश की नर्मदा और चंबल इलाके में इतिहास की कई परतों से हमें रूबरू कराया. उन्होंने लोगों को बौद्ध इतिहास के बारे में समझाने के लिए बड़वानी की 100 से अधिक जैन मूर्तियों के पादपीठ अभिलेखों का वाचन कर प्रकाशन किया. श्री वाकणकर ने इंग्लैड, फ्रांस, मैक्सिकों, अमेरिका सहित दुनिया भर के पुराविदों और इतिहासवेत्ताओं के साथ काम किया.

श्री वाकणकर को था चित्रकारी का भी शौक :

श्री वाकणकर के बारे में कहा जाता है कि वह कई कलाओं के धनी थे. श्री वाकणकर को चित्रकारी का भी शौक था. उनके द्वारा बनाए गए 7000 से भी अधिक चित्र उज्जैन के भारती कला भवन में संग्रहीत हैं. उन्होंने मुंबई से बकायदा चित्रकला का डिप्लोमा हासिल किया था।

देश की ऐतिहासिक-सांस्कृतिक मानचित्र की पुनर्व्याख्या करने के लिए डॉ विष्णु श्रीधर वाकणकर को सदैव याद किया जाता रहेगा. उन्होंने भारत की सांस्कृतिक आत्मा को विश्वभर में पहचान दिलाने का काम किया है. उनके योगदान को देखते हुए ही भारत सरकार ने उन्हें साल 1975 में पद्म श्री अवार्ड से सम्मानित किया था. 3 अप्रैल 1988 को श्री वाकणकर का असमय निधन हो गया. श्री वाकणकर अपने जीवन के अंतिम समय तक भारतीय संस्कृति के प्रभाव को दुनियातक पहुंचाने में लगे रहे. अगर श्री वाकणकर नहीं होते तो भारतीय संस्कृति के कई रहस्यों से आज भी हम अनजान ही होते. भारत मां के सच्चे सपूत, विश्व विख्यात कला-साधक, एक महान पुरातत्वविद, सिद्धहस्त कलाकार, इतिहास के वैज्ञानिक विमर्शकार, भाषा लिपियों का विलक्षण जानकर, संस्कृति के गहरे अनुरागी, साहित्यकार और कवि पद्मश्री डॉ विष्णु श्रीधर वाकणकर को शत-शत नमन है.

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