What is Muharram – मुहर्रम क्या है और क्यों मनाते हैं? जानें मुहर्रम का इतिहास

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समूचे विश्व में इमाम हुसैन (Husayn ibn Ali ibn Abi Talib) को याद करते हुए उनको मानने वाले शिया मुस्लिम मुहर्रम (muharram) को मनाते हैं. इमाम हुसैन के बारे में बता दें कि वे पैगंबर मोहम्मद के नाती थे. इमाम और उनके साथियों की शहादत मुहर्रम महीने के दौरान हुई थी और इस कारण इस्लाम में भरोसा रखने वाले लोगों के लिए मुहर्रम (muharram) का महीना बहुत ही खास होता है.

इस्लाम को मानने वाले लोगों के लिए यह महीना कई विशेषताओं और महत्वों से भरा हुआ है. मुहर्रम को इस्लामिक कैलेंडर के अंतर्गत हिजरी संवत का पहला महीना भी कहा जाता है. मुहर्रम को लेकर यह भी कहा जाता है कि यह सब्र और इबादत का महीना है.

आज हम मुहर्रम क्या है ? मुहर्रम क्यों मनाते है ? मुहर्रम में क्या करते हैं ? मुहर्रम का इतिहास क्या है ? आदि के बारे में बात करने जा रहे हैं. तो चलिए जानते हैं विस्तार से इस बारे में :

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मुहर्रम क्या है और क्यों मनाया जाता है ? (what is muharram and why celebrate muharram ?)

जैसा कि हम आपको पहले ही इस बारे में बता चुके हैं कि मुहर्रम को इमाम हुसैन की शहादत को याद करते हुए मुस्लिम समुदाय के लोग मनाते हैं. इस महीने को इबादत का महीना कहा जाता है. यह भी कहते हैं कि मुहर्रम महीने के दौरान ही पैगंबर हजरत मुहम्मद मक्का से मदीना आए थे. इस महीने के दौरान ही शहीदों के बलिदानों को याद किया जाता है और उनकी याद में ही महीने भर इबादत की जाती है.

क्या करते हैं मुहर्रम में ?

इस महीने में शिया मुस्लिम (muslim) के कई लोग रोजा (roza) रखते हैं और इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत को याद करते हैं. कहा जाता है कि कर्बला के शहीदों ने ही इस्लाम को नवजीवन दिया था. और इसे लेकर लोग मुहर्रम के महीने के पहले 10 दिनों तक रोजा (fasting is islam) रखते हैं. यही नहीं जिन लोगों का मुहर्रम के पहले 10 दिनों में रोजा नहीं होता है वे 9 और 10 तारीख को रोजा रख लेते हैं.

क्या है मुहर्रम का इतिहास ? (history of muharram)

इराक यानि कर्बला में 60 हिजरी के दौरान यजीद ने खुद को इस्लामिक धर्म (islam) का खलीफा बनाया. वह चाहता था कि उसका वर्चस्व पूरे अर्ब में हो. लेकिन उसके इस काम में सबसे बड़ी बाधा थे पैगम्बर मुहम्मद खानदान के चिराग इमाम हुसैन. इमाम किसी भी कंडीशन में यजीद के आगे झुकने को मंजूर नहीं थे.

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यजीद के अत्याचारों का सिलसिला लगातार बढ़ता ही जा रहा है और 61 हिजरी से यह चरम पर पहुंचे लगा. जिसके बाद इमाम हुसैन ने अपने कुछ साथियों और परिवार के सदस्यों के साथ मदीना से इराक के शहर कुफा की राह पकड़ी. लेकिन रास्ते में ही यजीद की फ़ौज ने इमाम के काफिले को घेर लिया.

मुहर्रम (muharram) महीने के इस दिन में इस कारण इमाम के काफिले को रेगिस्तान में तपती रेत पर ही रुकना पड़ा. इस जगह पानी के लिए एक ही स्त्रोत था जोकि फरात नदी थी लेकिन यजीद की फ़ौज ने 6 मुहर्रम से इमाम के लिए इस पानी पर भी रोक लगा दी थी. यजीद ने इमाम को झुकाने की कई कोशिशे की जिसके बाद युद्ध का एलान कर दिया गया.

जिसके बाद यजीद की 80 हजार की फ़ौज के साथ इमाम हुसैन के 72 साथियों ने युद्ध किया. उनकी बहादुरी की मिसाल दुश्मन फ़ौज के सिपाही भी एकदूजे को देते थे.

मुहर्रम (muharram) के 10वें दिन तक इमाम अपने परिवार के सदस्यों और साथियों के शवों को दफनाते रहे और आखिर में अकेले युद्ध करते रहे लेकिन दुश्मन उन्हें मार नहीं पाए. जिसके बाद जब इमाम हुसैन अस्र की नमाज पढ़ रहे थे तब धोखे से हुसैन को शहीद कर दिया गया.

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