Kashmiri Pandits Exodus – यहां पाकिस्तान होगा, पंडितों के बगैर पर उनकी औरतों के साथ

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Kashmiri Pandits Exodus – दोस्तों आज के इस आर्टिकल में हम कश्मीरी पंडित नरसंहार (kashmiri pandit massacre) के बारे में बात करेंगे. उन्ही कश्मीरी पंडितों के बारे में जिन्हें एक दिन अचानक उन्हें उनके ही घर से निकाल दिया. रातों-रात कश्मीरी पंडितों को अपना घर, जमीन, दुकान सबकुछ छोड़कर पलायन करना पड़ा. अपने ही देश में उन्हें विस्थापितों की जिंदगी बितानी पड़ी. कई कश्मीरी पंडितों को सरेआम मार दिया गया. कई महिलाओं का रेप किया गया. यह सब कुछ हुआ, उनके अपने ही देश में.

आज इस आर्टिकल में हम कश्मीरी पंडितों के नरसंहार ((kashmiri pandit massacre) और कश्मीरी पंडितों के पलायन (kashmiri pandits exodus story) पूरी कहानी जानेंगे. उस नरसंहार को लेकर लोगों के मन में आज भी कई तरह के सवाल है. जैसे – कश्मीरी पंडितों को कश्मीर से कब भगाया गया?, 19 जनवरी 1990 कश्मीर में क्या हुआ था?, कश्मीरी पंडित पलायन के समय किसकी सरकार थी?, कश्मीरी पंडित कांड के समय केंद्र में किसकी सरकार थी, 1990 में जम्मू-कश्मीर का मुख्यमंत्री कौन था? आज इन्ही सवालों के जवाब सहित पूरी कहानी जानेंगे. तो चलिए शुरू करते है.

दरअसल देश की आजादी और विभाजन के बाद कश्मीर को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच जंग शुरू हो गई. इसका असर कश्मीरियों पर भी पड़ा, लेकिन कश्मीरी मुसलमानों और कश्मीरी पंडितों के बीच कभी दरार नहीं आई, लेकिन इस प्यार में दरार आई 1980 के दशक से. यह वह समय था जब अफ़ग़ानिस्तान में वर्चस्व को लेकर रूस और अमेरिका के बीच तनातनी शुरू हो गई. अफ़ग़ानिस्तान पर रूस का कब्जा हो चुका था और रूस को अफ़ग़ानिस्तान से निकालने के लिए अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान के लोगों को धर्म की अफीम चटाई.

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अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान के लोगों के मन में यह बात बिठा दी कि रूस के अफ़ग़ानिस्तान पर कब्जे से इस्लाम खतरे में आ गया है. इस तरह अमेरिका ने एक रणनीति के तहत अफ़ग़ानिस्तान के लोगों को मुजाहिदीन बनाना शुरू किया. इनका एक ही मकसद हुआ करता था कि रूस के सैनिकों को मारना. मुजाहिदीन बनने के लिए ऐसे लोग आगे आए, जो पहले से ही आम जनता के लिए समस्या थे यानि क्रूर और वहशी लोग.

एक रणनीति के तहत इन लोगों की ट्रेनिंग पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर में हुई. एक कहावत है कि खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है. कश्मीर में कुछ ऐसा ही हुआ. धर्म के नाम पर मरने-मारने को आतुर इन लोगों को कश्मीर में भेजा गया. उस समय कश्मीर में कश्मीरी पंडितों की संख्या भले कम थी, लेकिन पुलिस और प्रशासन में कश्मीरी पंडित अच्छी-खासी संख्या में थे. ऐसे में जब पुलिस ने कट्टरपंथियों के खिलाफ कार्रवाई की तो उसकी जद में कुछ आम मुस्लिम भी आए. ऐसे में कट्टरपंथियों ने आम कश्मीरी मुस्लिमों के मन में यह बात बैठा दी कि कश्मीरी पंडित काफिर है और वह मुस्लिमों पर अत्याचार कर रहे है.

इसी के साथ कश्मीरी पंडितों को कश्मीर से निकालने की बात चलने लगी. शुरू में कश्मीरी मुस्लिमों ने इसका विरोध किया, लेकिन बाद में कुछ लोग डर के मारे और कुछ लोग यूनिटी की भावना से चुप हो गए. इसके बाद कश्मीर में शुरू हुआ खुनी खेल. कश्मीर में ब्लास्ट होने लगे, गोलियां चलने लगीं. धरती का स्वर्ग कही जाने वाली कश्मीर घाटी आए दिन खून से लाल होने लगी.

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साल 1986 में गुलाम मोहम्मद शाह ने अपने बहनोई फारुख अब्दुल्ला से कश्मीर की सत्ता छीन ली और खुद जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बन गये. मुख्यमंत्री बनने के बाद गुलाम मोहम्मद शाह ने एक ऐसा निर्णय लिया, जिसने कश्मीरी पंडितों और मुस्लिमों के बीच नफरत की आग में तेल डालने का काम किया. दरअसल गुलाम मोहम्मद शाह ने घोषणा की थी कि जम्मू के न्यू सिविल सेक्रेटेरिएट एरिया में एक पुराने मंदिर को गिराकर भव्य शाह मस्जिद बनवाई जाएगी.

गुलाम मोहम्मद शाह के फैसले के विरोध में कश्मीरी पंडितों ने प्रदर्शन शुरू कर दिए. इसके जवाब में कट्टपंथियों ने मुस्लिमों को बरगलाना शुरू किया कि इस्लाम खतरे में है. इसका नतीजा यह हुआ कि पूरे जम्मू-कश्मीर में कश्मीरी पंडितों पर हमले होने लगे. हत्याएं और बलात्कार की घटनाएं आम हो गई. आख़िरकार दंगों से तंग आकर जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल जगमोहन ने 12 मार्च 1986 को गुलाम मोहम्मद शाह की सरकार को बर्खास्त कर दिया.

इसके बाद साल 1987 में जम्मू-कश्मीर में वापस चुनाव हुए और कट्टरपंथी चुनाव हार गये. इसी के साथ जम्मू-कश्मीर की आम जनता ने यह साबित किया कि वह कश्मीरी पंडितों और मुस्लिमों का झगड़ा नहीं चाहते. उन्हें तो कश्मीर में शांति चाहिए. लेकिन कट्टरपंथियों को भला यह कहाँ मंजूर था. उन्होंने हार की बाद भी लोगों के मन में यह कहते हुए जहर भरना शुरू कर दिया कि चुनाव में धांधली हुई है. कट्टरपंथियों ने हर बात को इससे जोड़ दिया कि इस्लाम खतरे में है.

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जुलाई 1988 में कश्मीर को भारत से अलग करने के लिए जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट बनाया गया. अब कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के लिए कोई जगह नहीं बची थी. इसके बाद सरेआम कश्मीरी पंडितों को कश्मीर से भगाने का खेल शुरू हुआ. इसके पहले शिकार बने भाजपा के नेता पंडित टीका लाल टपलू, जिनकी 14 सितंबर 1989 को कई लोगों के सामने हत्या कर दी गई, लेकिन हत्यारे नहीं पकड़े गए. इस घटना के बाद तो कश्मीरी पंडितों की हत्या आम बात हो गई.

4 जनवरी 1990 यह वह दिन था जब कश्मीर के अख़बारों में छपवाया गया कि सारे पंडित कश्मीर की घाटी छोड़ दें वरना अच्छा नहीं होगा. कुछ इसी तरह की बातें चौराहों और मस्जिदों में लाउडस्पीकर के जरिए कही जाने लगी. सरेआम ऐलान किया गया कि, ‘यहां पाकिस्तान होगा, पंडितों के बगैर पर उनकी औरतों के साथ.’ इसके बात तो जैसे लोगों को हत्या और बलात्कार करने की परमिशन ही मिल गई हो. जगह-जगह हत्यायें औऱ रेप होने लगे. एक आतंकवादी ने तो अकेले ही 20 लोगों की हत्या कर दी और वह इसे बड़े गर्व से लोगों को बताता. उस समय कितने कश्मीरी पंडितों को मारा गया और कितनी महिलाओं का बलात्कार हुआ, इसका कोई हिसाब नहीं है.

इन घटनाओं के बाद कश्मीरी पंडितों को मजबूरन कश्मीर छोड़कर भागना पड़ा. लगभग 4 लाख कश्मीरी पंडित अपनी जान बचाने के लिए आस-पास के राज्यों में चले गए. हालांकि इस भीषण नरसंहार के बाद भी कुछ कश्मीरी पंडितों ने वहां रूकने की हिम्मत की, लेकिन 1997, 1998 और 2003 में फिर नरसंहार हुए और फिर कश्मीरी पंडितों का विस्थापन हुआ. एक आंकड़े के अनुसार अभी भी कश्मीर में करीब 20 हजार पंडित रहते हैं, लेकिन आज भी आए दिन कश्मीरी पंडितों पर हमले की ख़बरें सामने आती रहती है.

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अब यहाँ कई लोगों के मन में यह सवाल आता है कि जब कश्मीर में कश्मीरी पंडितों का नरसंहार किया जा रहा था तब सरकार क्या कर रही थी?, कश्मीरी पंडित कांड के समय केंद्र में किसकी सरकार थी?, 1990 में जम्मू-कश्मीर का मुख्यमंत्री कौन था? तो चलिए हम आपको बताते है इन सवालों के जवाब.

सबसे पहले हम बात करते है कि कश्मीरी पंडित पलायन के समय जम्मू-कश्मीर में किसकी सरकार थी? तो बता दे कि उस समय नरसंहार के समय जम्मू-कश्मीर में फारूक अब्दुल्ला की सरकार भी थी और बाद में गोवेर्नर रूल भी लगा. बता दे 7 नवंबर 1986 से लेकर 19 जनवरी 1990 तक फारूक अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री थे. इसके बाद जम्मू-कश्मीर में गोवेर्नर रूल लग गया था. उस समय जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल जगमोहन थे.

वहीँ बात करें तो केंद्र सरकार की तो बता दे कि उस समय केंद्र में राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार थी, जिसके प्रधानमंत्री वीपी सिंह थे. इस सरकार को बीजेपी और पीडीपी का भी समर्थन हासिल था और पीडीपी के अध्यक्ष मुफ्ती मोहम्मद सईद देश के गृहमंत्री हुआ करते थे. हालाँकि बाद में भाजपा ने केंद्र सरकार से समर्थन वापस ले लिया जिसके बाद वीपी सिंह सरकार 10 नवंबर 1990 को गिर गई.

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