जानिए बकरीद क्या है?, बकरीद क्यों मनाया जाता है? और बकरीद का इतिहास क्या है?

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Bakra Eid History – दोस्तों आज के इस आर्टिकल में हम बात करेंगे ईद-उल अजहा यानी बकरीद के बारे में. दोस्तों मुसलमानों के लिए ईद-उल फित्र के बाद ईद-उल अजहा सबसे बड़ा धार्मिक त्योहार है. बकरीद के मौके पर ईदगाह या मस्जिदों में विशेष नमाज अदा करने की परम्परा है. इसके अलावा बकरीद पर बकरे या किसी अन्य जानवरों की कुर्बानी देने की भी परम्परा हैं.

दोस्तों बकरीद के मौके पर जानवर की कुर्बानी देने की परम्परा अक्सर विवादों में रहती है. दक्षिणपंथी विचारधारा से जुड़े कई लोगों और नेताओं ने बीते कुछ वर्षों में बकरीद पर जानवरों की कुर्बानी ना देने की मांग की है. इसके अलावा मुस्लिम समुदाय के अंदर से भी कई लोगों ने बकरीद पर जानवरों की कुर्बानी ना देने की बात उठाई है. हालाँकि इन मांगों को लेकर विवाद की स्थिति जरुर बन जाती है.

दोस्तों आज इस आर्टिकल में हम जानेंगे कि ईद-उल अजहा यानी बकरीद क्या है?, बकरीद क्यों मनाते हैं?, बकरीद मनाने की शुरुआत कब और कैसे हुई? और बकरीद पर बकरे की कुर्बानी क्यों दी जाती है? तो चलिए दोस्तों शुरू करते हैं और जानते हैं कि ईद-उल अजहा Eid-al Adha यानी बकरीद के बारे में (Bakra Eid History).

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न्यूज़ वेबसाइट आजतक के अनुसार इस्लाम धर्म में यह मान्यता है कि उनके आखिरी पैगंबर हजरत मोहम्मद हुए थे. वर्तमान समय में इस्लाम का जो रूप और परंपराएं हैं, वह पैगंबर मोहम्मद के समय की ही हैं. लेकिन इस्लाम में कुल 1 लाख 24 हजार पैगंबर हुए, जिनमें से एक पैगंबर का नाम था हजरत इब्राहिम. कहा जाता है कि हजरत इब्राहिम के समय ही कुर्बानी का सिलसिला शुरू हुआ.

दरअसल मान्यता है कि हजरत इब्राहिम 80 साल की उम्र में पिता बने थे. हजरत इब्राहिम के बेटे का नाम इस्माइल था. हजरत इब्राहिम अपने बेटे इस्माइल से बहुत प्यार करते थे. एक दिन हजरत इब्राहिम को सपने में अल्लाह ने हुक्म दिया कि उन्हें अपनी सबसे प्यारी चीज को कुर्बान करना होगा. हजरत इब्राहिम ने अल्लाह के हुक्म का पालन करने के लिए अपनी सबसे प्यारी चीज यानि अपने बेटे को कुर्बान करने का फैसला किया.

इसके बाद हजरत इब्राहिम ने अपने बेटे को कुर्बान करने के लिए अपने आँखों पर पट्टी बांधी और बेटे इस्माइल की गर्दन पर छुरी रख दी. इसके बाद जब अपनी आँखे खोलकर देखा तो इस्माइल सही-सलामत खड़े थे जबकि उनकी जगह एक दुंबा वहां प्रकट हो गया था. इस्लाम में इसको लेकर मान्यता है कि यह महज एक इम्तेहान था, जिसमें हजरत इब्राहिम कामयाब हुए. कहाँ जाता है कि इसके बाद से ही जानवरों की कुर्बानी की परम्परा शुरू हुई. हालाँकि इसको लेकर कई लोगों के अलग-अलग मत भी है.

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मुस्लिमों के जानकर कहते हैं कि भले ही कुर्बानी की परम्परा हजरत इब्राहिम के दौर में शुरू हुई थी, लेकिन आज जिस तरह से मुस्लिम समाज के लोग बकरीद पर मस्जिद या ईदगाह में जाकर नमाज पढ़ते हैं, वह पैगंबर मोहम्मद के दौर में शुरू हुई थी. यानि कुर्बानी की परम्परा हजरत इब्राहिम के दौर में शुरू हुई, लेकिन नमाज की परम्परा पैगंबर मोहम्मद के दौर में शुरू हुई.

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